ख्व़ाब 

वो पल मानो वहीं थम सा गया,

मेरा मन ना जाने किस में रम सा गया,

बचपन से जो सोचा था कभी,

वो अजनबी मुझे अचानक जम सा गया ।

 

सब कुछ एक सपना सा लगे,

कैसे कोई अचानक अपना सा लगे,

ना जाने किसने दीवाना किया मुझे,

अब तो हर लम्हा बेगाना सा लगे ।

 

जो ख्व़ाब था कभी,

उसको चेहरा मिल गया,

मिलने को जो आतुर थे कभी,

उन नैनो को बसेरा मिल गया ।

 

यूँ ही कैसे टकरा जाते हैं दो अन्जाने,

रास्तो पर चलते- चलते ही बन जाते है  अफ़साने,

जिसके प्यार से जीवन खिल जाता है,

कोई तो बात होगी जो लाखों मे,

एक हमसफ़र मिल जाता है ।

 

© रंजीता अशेष

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61 thoughts on “ख्व़ाब 

  1. wonderful poem,रास्तो पर चलते- चलते ही बन जाते है अफ़साने loved this line very much..:)every wording this poem was crafted so well into it like a masterpiece ..:)

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